Monday, January 1, 2018

बीस साल बाद - 2

15 - 10 - 2017
बीस साल बाद - 2 


15th अक्टूबर को हम एक आधी (RAC) और एक पूरी टिकट लेकर नीलाचल एक्सप्रेस से चलने को तैयार हुए। जाने की खुशी में सारी रात आँखो से नींद गायब रही। कब सुबह के चार बज गये पता ही ना चला। उठ कर यू ही कुछ बेकार के काम निपटाती रही। नीलाचल को सुबह 6:35 पर चलना था, पता चला लेट है। पहले जिस दिन हमें जाना होता था, सुबह तीन बजे उठ कर पूरी अौर आलू की सब्जी बनाते, साथ में आचार, चनाचूर, उबले अंडे, ब्रेड, जैम, चीज़, ना जाने क्या क्या खाने का सामान पैक होता। चौबीस घंटे का सफर फिकनिक मनाते गुज़रता। इस बार सिर्फ चार अंडे उबाले, ब्रेड, चीज़, जैम लिया। निकलते समय ठेले वाले से दो प्लेट पोहा के पैक करवा लिए। ट्रेन लेट होती जा रही थी, जाने का इंतजार मुझे तकलीफ दे रहा था। ट्रेन के लेट होने का सिलसिला आखिर 9:40 पे जा कर ख़त्म हुआ। ऐ सी का टिकट नही मिला था, हम स्लीपर क्लास में जा रहे थे। मै खुश थी क्यों कि ऐ सी में उसकी काँच ढ़की खिड़की बाहर की दुनिया से हमे अलग कर देती है। और स्लीपर क्लास की खिड़की के पास बैठ कर लगता है जैसे बाहर की हरीभरी दुनिया मुझे अन्दर तक छूती हुई चल रही हो। 
हम स्टेशन पहूँच कर ट्रेन में चढ़े। मेरा एक अौर बब्बू का नौ नम्बर कोच था। हमारे पास ज्यादा सामान नही था, सीट के नीचे रख दिया। ट्रेन में जाने वाले अौर उन्हे पहुँचाने वालो की भीड़ अौर शोर के बीच मै सिकुड़ कर एक कोने में बैठी लोगो के सामान के बीच अपना पैरो को कहीं रखने की कोशिश कर रही थी। सोचा पहले की तरह जब ट्रेन चल पड़ेगी, शांति हो जायेगी। पर ट्रेन के चलने के साथ साथ भीड़, धक्का-मुक्की, शोर अौर बड़ता चला गया। मै बीस साल पहले भी नीलाचल से गई थी। एैसा लग रहा था, जैसे उसी बीस साल पुराने डब्बे में बैठी हुँ, जो खटारा हो कर कुछ ज्यादा ही झटके मार रहा था। मुझे बार-बार अपने पैरो के लिए जगह बनानी पड़ रही थी। ट्रेन ने अपनी धीमी चाल को बनाये रखते हुए, रूकती-चलती अपने लेट होने के सिलसिले को बढ़ाना जारी रखा। बब्बू अौर मै अलग अलग डब्बो में बैठे थे। मेरे डब्बे के ठीक बगल वाला डब्बा पैन्ट्री कार था, जहाँ जितनी बार खाने में छोंका लगता हमारा डब्बा धुये से भर जाता। आँखो में जलन होने लगती। मै खिड़की के पास बैठी थी फिर भी हालत खराब थी। टायलेट के बारे में कोई क्या कहे, वहाँ तक पहुँचना मतलब कितने बैठे लोगो के ऊपर से या धक्का देते जगह बनाते शायद पहुँच जाऊ। अगर बीच में ही अटक गई मैं ना इधर ना उधर। अौर अगर टायलेट तक पहुँच जाये कोई तो उसका हाल क्या कहूँ। बस खाना-पीना जितना कम हो, वही अच्छा। कम से कम टायलेट के दर्शन हो, वही भला! शाम तक बैठे बैठे मेरे पैर सूज गये अौर कमर अक्कड़ गई। 

पन्द्रह तारीख़ जैसे तैसे बीता। बब्बू का टिकट R A C था, यानी एक सीट में दो लोग। दूसरा आदमी कुछ ज्यादा ही तन्दरूस्त था, सीट पर उसके लेट जाने के बाद दूसरा ..... सो बब्बू मेरी सीट पर मेरे साथ सोने आ गया। जिन लोगो की टिकट वेटिग थी, टी टी को उन लोगो की बहुत फिक्र हो रही थी। कोने में ले जाता, वहाँ खुसुर-पुसुर होती, जेब गर्म हो जाती तो छोड़ देता। इसलिए काफी भीड़ थी. हर सीट में दो दो लोग। मेरा लोअर बर्थ था। जमीन पर दोनो लोअर बर्थ के बीच वाली जगह में ठीक ठाक लम्बे चौड़े दो लोग अटे पड़े थे। अपनी सीट से उतरना चढ़ना मुश्किल था। बब्बू जैसे तैसे मेरी सीट पर आ कर लेटा। अभी सोई ही थी कि सुबह हो गई, उठ कर बैठ जाना पड़ा, क्योंकि वेटिंग टिकट वालो के अलवा हर स्टेशन में चढ़ने वालो को भी बैठना था। पहले ये नीलाचल अच्छी ट्रेन मानी जाती थी। तकरीबन सही समय पर चलती, ज्यादा से ज्यादा दस पनद्रह मिनट देर से पहूँचती, हाँ, कभी कभी ज्यादा लेट करती। पर अब सबसे घटिया ट्रैन बन चुकी है। 
सोलह तारीख़ भी सारा दिन हालत खराब रही। रोते-धोते, रुकते-चलते गाड़ी ने सुबह 7:35 की जगह शाम पाँच बजे के बाद पहूँचना था। यानी सोलह तारीख़ भी गया। अब हमारे पास सतरह तारीख़, यानि, सिर्फ एक दिन रह गया था।

शबनम गिल   

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